इस्पात की सांस: डॉ. शुभ गौतम की तकनीक से भारत बना हरित नवाचार का अग्रदूत
Green Innovation: भारत के औद्योगिक परिदृश्य में एक क्रांतिकारी अध्याय जुड़ गया है — अब फैक्ट्रियां केवल उत्पादन का प्रतीक नहीं, बल्कि पर्यावरणीय पुनर्जीवन की प्रयोगशालाएं बन रही हैं। यह बदलाव किसी सरकारी दबाव से नहीं, बल्कि भारतीय वैज्ञानिक बुद्धिमत्ता का परिणाम है। इस क्रांति के केंद्र में हैं श्रीसोल-अमेरिकन प्रीकोट का पेटेंट नं. 441784 और इसके सूत्रधार, देश के प्रसिद्ध ‘ग्रीन इनोवेशन मैन’ - डॉ. शुभ गौतम।
प्रदूषण नहीं, पर्यावरण की रक्षक है अब फैक्ट्री
विज्ञान के साथ प्रकृति का संगम
यह तकनीक साधारण धातुओं को ‘कार्बन सोखने वाली जीवंत सतहों’ में बदल देती है। जब ये सतहें वातावरण में मौजूद CO₂ को अवशोषित करती हैं और वर्षा के जल से पुनः सक्रिय होती हैं, तब प्रत्येक फैक्ट्री, गोदाम, और स्कूल की छत एक छोटे पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा बन जाती है। अब उद्योग नेट जीरो की दौड़ में पीछे नहीं, बल्कि आगे बढ़ रहे हैं।
हर छत बनेगी कार्बन की प्रहरी
कल्पना कीजिए, अगर पूरे भारत की 10,000 फैक्ट्रियों की छतों पर इस तकनीक का उपयोग किया जाए—तो हर साल लाखों टन कार्बन वायु से गायब हो सकता है। यह केवल पर्यावरणीय जीत नहीं बल्कि आर्थिक अवसर भी है। भारत की ‘ग्रीन मैन्युफैक्चरिंग’ पहचान बनकर अब वैश्विक बाजार में एक नई दिशा दिखा रही है।
नवाचार जहाँ नीति से बड़ा होता है इरादा
डॉ. शुभ गौतम कहते हैं - “हमने स्थिरता को लक्ष्य नहीं, बल्कि उद्योग की भाषा बनाया है।” उनका विश्वास है कि जब हर फैक्ट्री, हर बिल्डिंग अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाएगी, तब नेट ज़ीरो कोई नारा नहीं, वास्तविकता बन जाएगी। वे स्थिरता को लोकतांत्रिक आंदोलन मानते हैं, जहां हर निर्माता, हर नगर निगम अपनी हरियाली स्वयं पैदा करे।
मेक इन इंडिया से मेक फॉर अर्थ तक
यह तकनीक केवल बड़े उद्योगों तक सीमित नहीं, बल्कि छोटे उद्यमों के लिए भी सुलभ है। क्योंकि यह महंगे उपकरणों की नहीं, बल्कि स्थानीय रूप से तैयार इस्पात शीट्स की आधारभूत तकनीक है। यह नवाचार मेक इन इंडिया को ‘मेक फॉर अर्थ’ का स्वरूप देता है, जहां भारत सिर्फ निर्मित वस्तुएं नहीं, बल्कि धरती के स्वास्थ्य का समाधान भी निर्यात करता है।
पर्यावरणीय नैतिकता की राजधानी
यह कहानी किसी एक पेटेंट की नहीं, बल्कि उस सोच की है जिसने साबित किया कि सतत विकास कोई अमीर वर्ग का विशेषाधिकार नहीं। हर दीवार, हर छत, हर भवन अब पृथ्वी के पर्यावरणीय भविष्य की जिम्मेदारी उठाएगा। भारत अब केवल आर्थिक महाशक्ति नहीं, बल्कि पर्यावरणीय नैतिकता का वैश्विक नेतृत्वकर्ता बन चुका है — और यह सफर शुरू हुआ वहीं, जहां इस्पात ने सांस लेना सीख लिया।
