"मन की मैल हटे बिना नहीं मिलेगा परमात्मा: जानिए 'मैं' से मुक्ति का मार्ग"

अहंकारी व्यक्ति सभी वस्तुएं अपनी समझकर 'मैं' से जुड़ता है, जबकि परमात्मा को समर्पित 'ईशावास्य इदम् सर्वम' अर्थात जो कुछ भी संसार में है सब ईश्वर का है ऐसा मानते हुए 'तू' (परमात्मा) से जुड़ता है।
'तू' शब्द ज्ञान स्वरूप परमात्मा का वाचक है और मैं अज्ञान जन्य अहंकार का वाचक है। 'मैं' में दुर्गन्ध है जबकि 'तू' में सुगन्ध है। शुद्ध और पवित्र अन्त:करण ही सर्वश्रेष्ठ तीर्थ हैं, जिसने अपने अन्त:करण को दोष मुक्त कर निर्मल बना लिया है वही प्रभु प्रेम का सच्चा अधिकारी बन सकता है। शुद्ध अन्त:करण में ही दिव्य चेतना और विशुद्ध प्रेम की अभिव्यक्ति हो सकती है। अन्त:करण की शुद्धि अर्थात आन्तरिक और बाह्य दोषों की निवृति किये बिना परमात्मा को पाने के सारे प्रयास व्यर्थ हैं।
दोष किसी भी मनुष्य में जन्मजात नहीं होते। भौतिक अनात्म, वस्तुओं से सुख प्राप्ति की कामनाएं उसे दोषमय बना देती है। वह दोषों को दोष न मानकर गुण मानता है और उनमें ही रस लेता है। इसी कारण वह उनसे मुक्त नहीं हो पाता। सुख प्राप्ति की चाह उसमें निरन्तर बढती जाती है और उन्हीं विषयों का चिंतन होते रहने के कारण उसका मन सदैव अशुद्ध बना रहता है।