भारतीय संस्कृति और परम्परा में अतिथि सेवा को विशेष स्थान प्राप्त है। संस्कृत के शास्त्रों में कहा गया है, "मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, अतिथि देवो भव", जिसका अर्थ है माता, पिता और अतिथि को देवता के समान सम्मान देना चाहिए। गृहस्थ में आने वाला हर व्यक्ति अतिथि नहीं कहलाता। मनुस्मृति के अनुसार जो विद्वान किसी घर में केवल एक रात्रि के लिए ठहरता है, उसे ही अस्थायी रूप से अतिथि कहा जाता है।
संस्कृति के अनुसार अतिथि के आगमन पर उसे सबसे पहले भोजन कराना चाहिए, भले ही घर में माता-पिता उपस्थित हों। माता-पिता को भोजन कराने के बाद ही अतिथि को सत्कार देना चाहिए ऐसा नहीं, अतिथि को माता-पिता से भी पहले भोजन कराकर सम्मान देना चाहिए। घर की आर्थिक स्थिति चाहे कितनी भी कमजोर क्यों न हो, अतिथि धर्म से विमुख होने की परम्परा हमारी सभ्यता में नहीं है। गृहस्थ भले भूखा रह जाए, लेकिन अतिथि को उचित सम्मान और भोजन की व्यवस्था प्रदान करनी चाहिए।
अतिथि सत्कार से न केवल हमारे भीतर त्याग और सहिष्णुता के गुण विकसित होते हैं, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक परम्परा और सभ्यता की पहचान भी है। अतिथि सेवा में परिश्रम, समर्पण और मानवता का आदर्श निहित है, जिसे भारतीय गृहस्थी में सदैव प्रोत्साहित किया जाता रहा है।