आज का मनुष्य जितना बाह्य साधनों से सम्पन्न हो रहा है, उतना ही भीतर से अशांत और अस्थिर होता जा रहा है। सुख और शांति की खोज में वह जप, तप, व्रत, उपवास, यज्ञ-अनुष्ठान और तीर्थ यात्राओं की ओर भागता है, लेकिन यह सारी भागदौड़ अंतत: उसे थका देती है—क्योंकि वह जिस शांति की तलाश में है, वह उसके भीतर ही छिपी है, बाहर नहीं।
अंत:करण की अशुद्धि का कारण है विषयों का निरंतर संग—भौतिक वासनाओं, इच्छाओं और लालसाओं की जटिल श्रृंखला, जो अंत में हमें थका देती हैं। सांसारिक विषय अस्थायी हैं, अपूर्ण हैं, और इसलिए वे कभी भी स्थायी सुख और शांति नहीं दे सकते।
हम परमात्मा से भी जब कुछ माँगते हैं तो वह भी सिर्फ भौतिक वस्तुएं होती हैं—धन, पद, प्रतिष्ठा, सफलता, सुविधा।
हम यह नहीं मांगते कि हमें सद्बुद्धि मिले, मन में पवित्रता आए, दृष्टि दिव्य हो, आत्मा मुक्त हो। जब तक मांग की दिशा नहीं बदलेगी, तब तक आत्मिक उन्नति और सच्ची शांति भी नहीं मिलेगी।
शुद्ध मन में ही शांति का वास होता है। जब मन निर्मल हो जाता है, तो सत्य का अनुभव स्वत: प्रकट होने