इलाहाबाद: उच्च न्यायालय ने ’नबी पैगम्बर’ के खिलाफ फेसबुक पोस्ट मामले को रद्द करने से किया इनकार
--कोर्ट ने कहा, फेसबुक पोस्ट का स्पष्ट दुर्भाग्यपूर्ण इरादा था
प्रयागराज। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मुस्लिम समुदाय के “नबी पैगम्बर“ के खिलाफ फेसबुक पोस्ट करने के आरोपित के खिलाफ शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया। न्यायालय ने पाया कि पोस्ट में प्रयुक्त शब्द स्पष्ट रूप से धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से बनाए गए थे।
न्यायमूर्ति सौरभ श्रीवास्तव की पीठ ने यह भी कहा कि बीएनएसएस की धारा 528 के तहत उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग संयमित रूप से किया जाना चाहिए और सम्मन जारी करने के स्तर पर कोर्ट से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वह आरोपित के बचाव की जांच करने के लिए “मिनी-ट्रायल“ आयोजित करे।
याची-आरोपित, मनीष तिवारी पर मुस्लिम समुदाय के पैगम्बर के खिलाफ फेसबुक पर पोस्ट करने के आरोप में बीएनएस की धारा 302 और 353(2) के तहत आरोप लगाया गया था। अभियोजन पक्ष ने कहा कि मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों ने इस कृत्य का विरोध किया, क्योंकि इससे उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची थी। जांच के बाद, आरोप पत्र दाखिल किया गया और सोनभद्र के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने अपराध का संज्ञान लेते हुए इस वर्ष जुलाई में एक सम्मन जारी किया।
पूरी कार्यवाही को चुनौती देते हुए, आरोपित ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की और तर्क दिया कि सम्बंधित मजिस्ट्रेट ने न्यायिक विवेक का प्रयोग किए बिना संज्ञान लिया है। उसका मुख्य तर्क यह था कि उसने कभी भी मुस्लिम धर्म के विरुद्ध कोई टिप्पणी नहीं की। उनके वकील ने बताया कि आवेदक के सबसे करीबी व्यक्ति ने आवेदक के मोबाइल नंबर का उपयोग करके उक्त टिप्पणियां की थीं। यह भी तर्क दिया गया कि आरोपित को सम्बंधित पुलिस द्वारा झूठे मामले में फंसाया जा रहा है, क्योंकि उसके खिलाफ कोई अपराध सिद्ध नहीं हुआ है। इसलिए, आरोप पत्र और सम्मन आदेश को रद्द करने का कोर्ट से आग्रह किया गया।
कोर्ट ने आवेदक द्वारा की गई विशिष्ट टिप्पणी सहित रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री का अध्ययन करने के बाद, आरोपित के वकील के तर्कों में कोई बल नहीं पाया। एकल न्यायाधीश ने कहा कि आवेदक द्वारा की गई टिप्पणी सहित रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री का अवलोकन करने से पता लगा कि पोस्ट में प्रयुक्त शब्द स्पष्ट रूप से समुदाय के एक विशेष वर्ग या देश के नागरिकों के एक वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के इरादे से जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण गढ़े गए हैं।
पीठ ने कहा कि इस तरह के तथ्यात्मक विवादों का निपटारा धारा 528 बीएनएसएस के तहत कार्यवाही में निर्णायक रूप से नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि सम्मन जारी करने के चरण में सामग्री पर विचार करना अस्थायी होता है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मजिस्ट्रेट को केवल प्रथम दृष्टया राय दर्ज करनी होती है और इस प्रारम्भिक चरण में उनसे आरोपित के बचाव की विस्तार से जांच करने की अपेक्षा नहीं की जाती है। इस प्रकार कोर्ट ने आवेदन को खारिज करते हुए कहा कि धारा 528 बीएनएसएस के तहत असाधारण क्षेत्राधिकार को लागू करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं बनता है।
