ड्रेस, विचार और दिशा—कैसे बदला एक सदी में आरएसएस

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भारत की सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में एक ऐसा नाम है, जिसने अपनी स्थापना के सौ साल में अपनी पहचान, भूमिका और स्वरूप में कई बदलाव देखे हैं। नागपुर से शुरू हुआ यह संगठन अब देश के सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने में गहरी पैठ बना चुका है।
ड्रेस में बदलाव: प्रतीक से परिप्रेक्ष्य की ओर
1925 से लेकर दशकों तक आरएसएस की पहचान खाकी नेकर और सफेद शर्ट वाली ड्रेस रही, जो अनुशासन और सैनिक छवि का प्रतीक थी। हालांकि, जैसे-जैसे समय बदला और आधुनिकता ने परिधान की मांगें बदलीं, यह पोशाक पुरानी और अप्रासंगिक लगने लगी। आलोचनाओं को नजरअंदाज न करते हुए 2016 में संघ ने अपनी ड्रेस को आधुनिक बनाते हुए खाकी नेकर की जगह भूरे रंग की पूर्ण पैंट को अपनाया। यह बदलाव केवल दिखावे का नहीं, बल्कि मानसिकता और सोच में बदलाव का संकेत भी था, जो संगठन की समयानुकूल सोच को दर्शाता है।
विचारों और उद्देश्यों में विकास
आरंभ में संघ का मुख्य उद्देश्य हिंदू समाज को संगठित करना और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मजबूत करना था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी उसने खुद को राजनीतिक आंदोलनों से अलग रखा। आज़ादी के बाद यह एजेंडा बरकरार रहा, लेकिन 1980-90 के दशक में अयोध्या आंदोलन ने संघ को राजनीति और धार्मिक प्रतीकवाद के केंद्र में ला खड़ा किया। राम मंदिर आंदोलन ने संघ की राजनीतिक पकड़ को मजबूत किया।
फिर भी, आज आरएसएस का एजेंडा व्यापक राष्ट्र निर्माण की ओर बढ़ चुका है, जिसमें शिक्षा, ग्रामीण विकास, सामाजिक सद्भाव और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दे शामिल हो गए हैं।
राजनीति से जुड़ाव और सामाजिक भूमिका
पहले राजनीति से दूरी बनाए रखने वाला संघ भारतीय जनता पार्टी के उदय के साथ सीधे राजनीतिक प्रभाव में आ गया। भाजपा की सत्ता में बढ़त ने संघ को केवल सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन से नीति निर्धारण की शक्ति में बदल दिया।
सामाजिक क्षेत्र में भी संघ ने अपनी छवि बदली है। अब यह केवल वैचारिक आंदोलन नहीं, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और आपदा राहत जैसे क्षेत्रों में सक्रिय सेवा संगठन के रूप में भी उभरा है।
आलोचनाएं और चुनौतियां
स्वतंत्रता संग्राम में संघ की भूमिका, गांधी हत्या के बाद उस पर लगे प्रतिबंध, और अल्पसंख्यकों के प्रति उसकी नीतियों को लेकर उठी आपत्तियां इसके विवादित इतिहास का हिस्सा रही हैं। धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बीच की बहस ने संघ को हमेशा अपने रक्षात्मक नजरिए को बनाए रखने पर मजबूर किया।
भविष्य की राह
अब संघ के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि क्या यह संगठन सिर्फ हिंदू समाज पर केंद्रित रहेगा या समावेशिता और सर्वजन स्वीकृति की ओर बढ़ेगा। युवा पीढ़ी, वैश्वीकरण, लोकतांत्रिक बहुलता और आधुनिक शिक्षा की मांगें संघ के लिए नए सवाल लेकर आई हैं।
सौ साल की इस यात्रा से स्पष्ट होता है कि आरएसएस ने अपने मूल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत को बनाए रखते हुए समय-समय पर प्रतीकात्मक और कार्यात्मक बदलाव किए हैं। इसी अनुकूलनशीलता ने इसे भारत की सबसे बड़ी और प्रभावशाली सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं में स्थापित किया है।