7 अक्टूबर वाल्मीकि जयंती- तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा, विश्व बिद्र जिमि तुमरे हाथा

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-डाविनोद बब्बर 

 

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आदि कवि के रूप में प्रतिष्ठित रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि ऋषियों के ऋषि, योगियों के योगी तथा संगीतज्ञों के संगीतज्ञ थे। वे वेदों के ज्ञाता थे। उन्होंने विश्व को संप्रदाय और जाति से दूर सभ्य समाज की परिकल्पना दी है। महाकाव्य रामायण के माध्यम से उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन मूल्यों को प्रकट किया है। आश्विन पूर्णिमा को प्रकट हुए भगवान वाल्मीकि परम ज्ञानी थे। तमसा नदी के तट पर व्याध द्वारा क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार डालने पर उनके मुख से लौकिक छंद के रूप में यह श्लोक प्रकट हुआ-

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मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। 

यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।। 

 

तमसा नदी पर स्नानादि के पश्चात् आश्रम लौटकर   विचारों में खो गये। तभी ब्रह्माजी ने उन्हें नारद द्वारा उन्हें सुनाई रामकथा का स्मरण कराते हुए उन्हें उस  कथा को काव्यबद्ध करने के लिए प्रेरित किया। इस तरह महर्षि वाल्मीकि ने चौबीस हजार श्लोकों में नई भाषा ,नए कथ्य, नए अंदाज और भाव भूमि के साथ विश्व को प्रथम महाकाव्य रामायण दिया। रामायण में अनेक घटनाओं के घटित होने के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन प्रमाण है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। ब्रह्मा जी ने रामायण की रचना पर  कहा-

यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितः  महीतले।

तावत् रामायण कथा लोकेषु प्रचरिष्यति। 

(जबतक इस धराधाम पर पहाड और नदियाँ रहेंगी, तब तक इस लोक में रामायण की कथा का प्रचार रहेगा।)

यावत् रामस्य  कथा त्वत् कृता प्रचरिष्यति।।

तावत् ऊर्ध्वम् अधः  त्वम् मत् लोकेषु निवत्स्यसि।। 

(जबतक तुम्हारी रची हुई रामायण की कथा का लोकों में प्रचार रहेगा, तब तक तुम्हारा यश भी मेरे बनाये हुए लोको में और उनके भी उर्ध्व लोक में निवास करोगे)। 

 

हालांकि महर्षि वाल्मीकि को राम का समकालीन माना जाता है लेकिन अनेक ग्रन्थों में सतयुग, त्रेता और द्वापर तीनों कालों में वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है। रामचरितमानस में इस बात का उल्लेख मिलता है कि वनवास के समय श्री राम स्वयं उनके आश्रम में आये, ‘देखत बन सर सैल सुहाए। वाल्मीक आश्रम प्रभु आए।।’ श्री राम  आदिकवि वाल्मीकि के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने के लिए जमीन पर डंडे की भांति लेट गए थे और उनके मुख से निकला था तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथाविश्व बिद्र जिमि तुमरे हाथा। अर्थात आप तीनों लोकों को जानने वाले स्वयं प्रभु हो। ये संसार आपके हाथ में एक बेर के समान प्रतीत होता है। महाभारत काल में भी वाल्मीकि का वर्णन मिलता है। महाभारत में पांडव की विजय के पश्चात  द्रौपदी ने यज्ञ अनुष्ठान किया। द्रोपदी को बताया गया था कि यज्ञ की सफलता का प्रमाण वहां रखे शंख का बजाना होगा। आश्चर्य कि शंख नहीं बजा। इसपर द्रोपदी ने श्रीकृष्ण से इसका कारण जानना चाहा। तब श्रीकृष्ण ने कहा था कि 

यज्ञ में सभी मुनियों बुलाये गये किन्तु मुनियों के मुनि अर्थात वाल्मीकि जी को न बुलाये जाने का परिणाम है कि यज्ञ सम्पूर्ण नहीं हुआ। तब द्रौपदी स्वयं उनके आश्रम में उनसे  यज्ञ में आने का अनुरोध करने गई। महर्षि वाल्मीकि के आगमन के पश्चात ही शंख बजता है। अतः द्रौपदी का यज्ञ संपन्न होता है।

 

कबीरदास जी ने इस घटना की चर्चा करते हुए कहा है, ‘सुपच रूप धार सतगुरु जी आए। पांडों के यज्ञ में शंख बजाए।’ यह भी सर्वज्ञात है कि सीता जी ने अपने वनवास का अन्तिम काल महर्षि वाल्मीकि के आश्रम पर व्यतीत किया। वहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ। वहीं उन्होंने रामायण गायन सीखा।

 

वाल्मीकि और उनके द्वारा रचित रामायण को भारतीय दर्शन में अत्याधिक सम्मान और श्रद्धा प्राप्त है। श्रीलवकुश कृत श्रीरामायण-मङ्गलाचरण  अगस्त्य-संहिता में स्पष्ट उल्लेख है- 

वेदवेद्ये परेपुंसि जाते दशरथात्मजे। वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना।।

(वेदवेद्य अर्थात् वेदों से हीं जाने जा सकने वाले परमपुरुष जब दशरथ के पुत्र रुप में प्रकट हुए, तब वेद हीं साक्षात् श्रीरामायण रुप में प्राचेतस श्रीवाल्मीकि मुनि के श्रीमुख से अवतीर्ण हुए।)

वाल्मीकिगिरिसम्भूता रामाम्भोनिधिसङ्गता।

श्रीमद्रामायणी गङ्गा पुनाति भुवनत्रयम्।।

(वाल्मीकि रुपि पर्वत से उत्पन्न श्रीराम रुपि सागर मे मिलने वाली श्रीमद् रामायण रुपि गङ्गा तीनों लोकों को पवित्र करने वाली है)

न केवल भारत वर्ष अपितु सम्पूर्ण विश्व में श्रीराम और श्री रामायण के प्रति कोटिशः जन की भावनाएं प्रमाण है कि श्रीरामरक्षास्तोत्र ने उचित ही कहा है-

 कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम्।। आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्।।

 (कविता नामक पेड़ की शाखाओं में बैठ कर मधुर ‘राम-राम’ का कूजन करने वाली वाल्मीकि नामक कोयल को मैं प्रणाम करता हूँ)  

 

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