मैंने कभी नहीं कहा कि 75 वर्ष में रिटायर हो जाऊंगा, न किसी और के लिए कहा : भागवत

नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने 75 साल की उम्र में रिटायरमेंट को लेकर बड़ा बयान दिया है। जब उनसे पूछा गया कि क्या 75 साल की उम्र में राजनीति या किसी काम से संन्यास ले लेना चाहिए, तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि न तो वे खुद रिटायर होंगे और न ही वे किसी को रिटायर होने के लिए कहेंगे। मोहन भागवत ने कहा कि इंसान तब तक काम कर सकता है जब तक वह खुद चाहे और संगठन को उसकी जरूरत हो।
उन्होंने कहा कि जाति और वर्ण व्यवस्था के ‘वाद’ बनने से सारा विवाद हुआ है और श्रम प्रतिष्ठा के खत्म होने के कारण यह विकृत्ति पैदा हुई है।
श्री भागवत ने संघ के शताब्दी वर्ष कार्यक्रमों के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय राजधानी में ‘सौ वर्ष की संघ यात्रा-नये क्षितिज’ विषय पर तीन दिन की व्याख्यान माला के आखिरी दिन श्रोताओं के सवालों के जवाब में ये बाते कहीं। उन्होंने शिक्षा व्यवस्था, भारत की संस्कृति, तकनीक और आधुनिकता के बीच समन्वय, भारतीय ज्ञान परंपरा, हिंदू राष्ट्र, भाषा विवाद, भारतीय जनता पार्टी के इतर दलों के साथ संघ के संबंध, घुसपैठ, जनसंख्या नियंत्रण जैसे ज्वलंत प्रश्नों के उत्तर दिये।
आरक्षण के सवाल पर संघ प्रमुख ने कहा, “संविधान सम्मत आरक्षण का संघ समर्थन करता है और यह तब तक जारी रहना चाहिए, जब तक उसके लाभार्थियों को न लगे कि इसकी अब जरूरत नहीं है।”
उन्होंने कहा कि बहुत पहले संघ में आरक्षण को लेकर लोगों के अलग-अलग विचार जरूर थे, लेकिन तत्कालीन सर संघचालक गुरु माधव सदाशिवराव गोलवरकर ने एक बैठक में अलग मत रखने वालों से कहा, “आप ऐसे लोगों के स्थान पर अपने को रखकर अपना मत रखें, जिनके साथ विगत में जातिगत कारणों से कुछ अन्याय हुए हैं।”
उन्होंने कहा कि इसके बाद अगले दिन बैठक में आरक्षण संबंधी प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ था। उन्होंने दीन दयाल उपाध्याय के एक रूपक का उदाहरण दिया, जिन्होंने आरक्षण के संबंध में कहा था,“ यदि कोई गढ्ढे में पड़ा है और आप उसे निकालना चाहते हैं, तो गड्ढ़े में पड़े व्यक्ति को खड़े होकर हाथ बढ़ाना होगा और निकालने वाले को गड्ढे में झुककर उसका हाथ पकड़ना होगा।”
उन्होंने कहा कि अगर किसी वर्ग के साथ हजार दो हजार साल पहले अन्याय हुआ है, तो उनके प्रति सहानुभूति रखना समाज का कर्तव्य बनता है।
श्री भागवत ने व्यवस्था परिवर्तन के लिए समाज परिवर्तन को आवश्यक बताया और कहा कि समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था अब रह नहीं गयी है, उसका अहंकार बचा है। उन्होंने कहा कि संघ का मानना है कि समाज में ऊंच-नीच का भेद नहीं होना चाहिए। मनुस्मृति के सवाल पर उन्होंने कहा कि हिंदू समाज में कोई एक पुस्तक नहीं है, यह समाज लोक से चलता है, फिर धर्माचायों को नये युग के हिसाब से नयी संहिता रचनी चाहिए।
उन्होंने भाषा के प्रश्न पर कहा, “ भारत में प्रयोग में आने वाली सभी भाषायें, राष्ट्रीय भाषायें हैं, सभी हमारी हैं, हां परस्पर व्यवहार के लिए एक भाषा होनी चाहिए और हमारा मत है कि वह भाषा विदेशी नहीं होनी चाहिए।” संस्कृत के बारे में उन्होंने कहा कि इसे अनिवार्य करने से नहीं, बल्कि इसमें रुचि पैदा करने से इसका प्रसार होगा लेकिन उन्होंने कहा कि भारत को जानने के लिए संस्कृत का काम चलाऊ ज्ञान तो होना चाहिए।