श्मशानी वैराग्य नहीं, जागरूक जीवन चाहिए: मृत्यु के सत्य को व्यवहार में उतारें

"साथ कुछ नहीं जाता" — यह वाक्य हर कोई जानता है, फिर भी जीवन में ऐसा व्यवहार बहुत कम देखने को मिलता है। आज के युग में भौतिकता की दौड़ ने इंसान को इतना व्यस्त कर दिया है कि वह यह भूल चुका है कि अंत में सब कुछ यहीं छूट जाना है। शरीर, धन, पद, प्रतिष्ठा — सब यहीं रह जाते हैं। साथ जाते हैं तो केवल हमारे अच्छे-बुरे कर्म, जो हमारे चित्त पर सूक्ष्म रूप से अंकित होते जाते हैं।
जीवन के इस सत्य को केवल श्मशान तक सीमित न रखते हुए, इसे आचरण में लाना ही सच्ची जागरूकता है।
धार्मिक विद्वानों और आत्मज्ञ संतों का भी यही मत है कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने वर्तमान जीवन को सद्कर्मों से सजाए, क्योंकि भविष्य उन्हीं कर्मों का प्रतिबिंब होता है।
ज्ञातव्य हो कि:
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मृत्यु के समय धन-दौलत साथ नहीं जाती, परंतु कर्मों का हिसाब अवश्य साथ जाता है।
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वर्तमान में किए गए सद्कर्म, भविष्य में सुख और शांति का कारण बनते हैं।
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यदि हम केवल श्रद्धांजलि सभाओं में वैराग्य जताते हैं और घर लौटकर उसे भूल जाते हैं, तो यह आत्मा के विकास को बाधित करता है।
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि आज के युवा वर्ग को भी इस दर्शन की आवश्यकता है, ताकि वे अपने जीवन में संतुलन, संस्कार और सच्चा उद्देश्य खोज सकें।