मृत्यु अटल है, डरना व्यर्थ: भय नहीं, आत्मचिंतन करें

"बनने वाले का नष्ट होना और जन्म लेने वाले की मृत्यु तो निश्चित है।"
हम अपने जीवन का बड़ा हिस्सा इसी सोच में गुजार देते हैं कि मृत्यु न आये। यदि वह आज नहीं आये तो शायद कल न आये। परंतु यह "कभी" जब भी आयेगा, वह आज और अभी ही होगा। मृत्यु का अनुभव कभी भविष्य में नहीं होता, वह हमेशा वर्तमान में घटित होती है। और उसका भय भी उतना ही जीवंत और तीव्र होता है जितनी मृत्यु स्वयं।
मृत्यु से नहीं, उसके भय से मुक्ति जरूरी है
मृत्यु को तो कोई टाल नहीं सकता — न राजा, न रंक, न वीर, न महावीर। जो इस पृथ्वी पर जन्मा है, उसे एक न एक दिन इस शरीर को त्यागना ही है। भगवान राम हों या कृष्ण, बुद्ध हों या महावीर, सभी ने मृत्यु को अंगीकार किया। फिर हम कैसे बच सकते हैं?
इसलिए असली लड़ाई मृत्यु से नहीं, बल्कि मृत्यु के भय से है। यही भय है जो हमें वर्तमान से काटता है, निर्णयों को प्रभावित करता है, और जीवन के सुखों को छीन लेता है।
भय से मुक्ति का उपाय क्या है?
इस भय से मुक्ति का एकमात्र उपाय है — चिंतन।
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चिंतन इस बात का कि मृत्यु सभी के लिए समान है।
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चिंतन इस बात का कि यह जीवन अमूल्य है, पर अजर-अमर नहीं।
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चिंतन इस बात का कि मृत्यु एक अंत नहीं, बल्कि एक संक्रमण है, एक बदलाव है।
और सबसे महत्वपूर्ण — यदि हमने जीवन में पाप कर्मों से स्वयं को बचाया, सत्य, धर्म और करुणा के पथ पर चले, तो मन में भय की कोई जगह नहीं रह जाती।
मृत्यु का इलाज नहीं, पर मृत्यु के भय का इलाज है — ज्ञान, स्वीकृति और धार्मिक जीवन।
मृत्यु दुखदायी नहीं होती, उसका भय दुखदायी होता है। इसलिए जीवन को भरपूर जिएं, धर्मयुक्त जिएं, और इस सत्य को समझें कि जो आया है, वह जाएगा — पर जाते समय उसके मन में भय न हो, इसका ख्याल रखना हमारा कर्तव्य है।