संतों और मनीषियों का कथन है कि ईश्वर और प्रेम में कोई तात्विक अंतर नहीं है। ईश्वर प्रेममय है और प्रेम ही ईश्वर है। कहा भी गया है— “प्रेम हरि का रूप है, त्यो हरि प्रेम स्वरूप।”
जीवात्मा, ईश्वर का ही अंश है। किन्तु इस ईश्वरीय प्रेम का मूल आधार
श्रद्धा है। श्रद्धा ही क्रमशः परिमार्जित, पुष्ट और परिपक्व होकर अपने उदात्त स्वरूप को ग्रहण करती है। जैसे आम के वृक्ष में फल आने की प्रारंभिक अवस्था
बौर होती है, जो क्रमशः पक कर मधुर फल बन जाती है, वैसे ही श्रद्धा भी रूपांतरित होकर
प्रेम का स्वरूप धारण करती है।
मनुष्य के भीतर ईश्वर से विरासत में मिली यह श्रद्धा—निष्ठा, रुचि, आसक्ति, भाव और अंततः प्रेम के रूप में विकसित होती हुई जीवन को धन्य बना देती है।
प्रेम की वृत्ति सभी प्राणियों में विद्यमान है, किन्तु जब यह भौतिकता और वासनात्मकता की ओर मुड़ जाती है, तब उसका उदात्त स्वरूप समाप्त हो जाता है। ऐसे में ईश्वर-प्रेम की अनुभूति असंभव हो जाती है।
सच्चे ईश्वर-प्रेम की प्राप्ति तभी संभव है, जब मनुष्य निष्काम भाव से ईश्वरीय गुणों को धारण करे और कर्म के माध्यम से जीवन में प्रेम का विस्तार करे।