पितृपक्ष: जीवित माता-पिता की सेवा ही है सच्चा श्राद्ध, जानें परंपरा का महत्व

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भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक चलने वाला पितृपक्ष, जिसे श्राद्ध पक्ष भी कहा जाता है, भारतीय परंपरा में पूर्वजों के प्रति आभार और श्रद्धा व्यक्त करने का विशेष अवसर माना जाता है। इस दौरान दिवंगत पितरों के लिए श्राद्ध करना पितृ ऋण से मुक्ति का मार्ग बताया गया है।

लेकिन प्राचीन ग्रंथों के अनुसार केवल मृत पूर्वजों का श्राद्ध ही पर्याप्त नहीं है। असली श्राद्ध तो जीवित माता-पिता और पितरों की सेवा में निहित है। उनके आदेशों का सम्मान, अनुशासन में रहना, उन्हें देव तुल्य मानकर पूजा करना और वृद्धावस्था में किसी भी तरह की कमी न आने देना ही वास्तविक पितृऋण से उऋण होने का मार्ग है।

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शास्त्रों में कहा गया है कि यदि माता-पिता वृद्धावस्था में अभाव या असंतोष की स्थिति में रह जाएं तो संतान पितृ ऋण से मुक्त नहीं हो सकती। इसलिए श्राद्ध का सच्चा अर्थ है – जीवित पितरों की सेवा और उनका सम्मान।

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इसके साथ ही संतान का पालन-पोषण और वृक्षारोपण को भी पितृऋण से उऋण होने का महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है। मान्यता है कि वृक्ष लगाना संतान पालन के समान है, क्योंकि वृक्ष भी अनगिनत प्राणियों को जीवन प्रदान करता है। इसलिए हर वर्ष श्राद्ध पक्ष में पितरों की स्मृति में वृक्ष लगाने की परंपरा अपनाने का संदेश दिया गया है।

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विशेषज्ञों का मानना है कि यह परंपरा न केवल पूर्वजों की यादों को जीवित रखती है बल्कि पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति के प्रति हमारी जिम्मेदारी निभाने का अवसर भी देती है। ऐसे रचनात्मक श्राद्ध से समाज में सांस्कृतिक चेतना और पर्यावरणीय संतुलन दोनों का संवर्धन होता है।

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