श्राद्ध में कौओं का महत्व - पितरों तक भोजन पहुँचाना

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 प्यासा कौआ की कहानी हम बचपन से सुनते आ रहे हैँ. कई कहावतें भी कौओं से सम्बंधित काफी प्रसिद्ध और प्रचलित है.

जैसे जैसे समय बीतता गया, कौआ भी सयाना और अकलमंद होने लगा. अब तो कौआ पानी की टोंटी पर बैठ, चोंच से टोंटी भी खोल कर पानी पीने लगा. सयाना कौआ ' गू ' पर बैठता है, चाहे एक कहावत है लेकिन सन्दर्भ बिलकुल अलग है. कौआ इतना शातिर और होशियार होता है कि इसके कई उदाहरण मिल सकते हैँ. भगवान श्री राम से वरदान भी मिला, जिस कारण वह पूजनीय हो गया और धार्मिक रीति रिवाजों में भी उसके माध्यम से पितरों तक पहुँच उसकी विशिष्टता बन गयी. 

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मेरे मित्र श्री नवीन खन्ना की कौओं से दोस्ती की चर्चा भी किसी रहस्यमयी किस्से से कम नहीं. 

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चलिए जानते हैँ कि कौआ श्राद्ध के दिनों में ही क्यों महत्वपूर्ण है.

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श्राद्ध में कौए की आवश्यकता धार्मिक मान्यताओं के अनुसार है क्योंकि कौआ पितरों का दूत माना जाता है और यमराज से जुड़ा होता है। यह मान्यता है कि कौए को भोजन कराने से पितरों तक वह भोजन सीधे पहुँचता है और वे प्रसन्न होकर वंशजों को आशीर्वाद देते हैं। इस परंपरा का पालन करने से पितृ दोष दूर होता है और पितृ पक्ष का श्राद्ध कर्म पूर्ण माना जाता है। 

श्राद्ध में कौए की भूमिका और महत्व:

पितरों का दूत:

सनातन परंपरा में कौए को पितरों का दूत या प्रतिनिधि माना जाता है। 

अन्न और जल का संचार:

यह मान्यता है कि श्राद्ध के दिन कौए को अर्पित किया गया अन्न और जल सीधे पितरों तक पहुँचता है और उन्हें तृप्त करता है। 

यमराज से संबंध:

पौराणिक मान्यता के अनुसार, कौए को यमराज का प्रतीक और संदेशवाहक भी कहा जाता है। 

श्राद्ध की पूर्णता:

जब कौआ श्राद्ध का भोजन ग्रहण कर लेता है, तो माना जाता है कि पितर संतुष्ट और प्रसन्न हो गए हैं। इसलिए कौवे को भोजन कराए बिना श्राद्ध अधूरा माना जाता है। 

पितृ दोष से मुक्ति:

गरुड़ पुराण में वर्णन है कि कौवे को अर्पित किया गया अन्न और जल पितरों को मोक्ष प्रदान करता है और पितृ दोष को दूर करता है। 

आत्माओं का निवास:

एक प्राचीन मान्यता यह भी है कि मृत आत्माएँ कौए के रूप में प्रवेश कर सकती हैं और एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकती हैं। 

 

कौआ  और कौवा (रेवेन) के बीच मुख्य अंतर आकार, चोंच, पंखों का आकार, पूंछ का आकार, आवाज़ और सामाजिक व्यवहार में होता है. कौवा आकार में बड़ा, चोंच मोटी और घुमावदार, पूंछ हीरे के आकार की और आवाज़ कर्कश होती है जबकि कौवा छोटा, चोंच पतली, पूंछ पंखे के आकार की और आवाज़ काँव-काँव वाली होती है. 

शारीरिक अंतर

आकार और चोंच: कौवा (रेवेन) कौवे (क्रो) से काफ़ी बड़ा होता है. कौवे की चोंच घुमावदार और भारी होती है जबकि कौवे की चोंच पतली और सीधी होती है. 

पंख और पूंछ: कौवे के पंखों के सिरे ज़्यादा नुकीले होते हैं जबकि कौवे के पंख कुंद और फैले हुए होते हैं. कौवे की पूँछ पंखे के आकार की होती है, वहीं कौवे की पूँछ हीरे के आकार की होती है. 

गले के पंख: कौवे के गले के पंख ज़्यादा घने होते हैं, जो उन्हें कुछ घुंघराले दिखाते हैं, जबकि कौवों के गले के पंख ज़्यादा घने नहीं होते हैं. 

व्यवहार और आवाज़ - 

आवाज़: कौवे की आवाज़ काँव-काँव की तरह होती है, जबकि कौवों की आवाज़ ज़्यादातर कर्कश, खड़खड़ाने वाली और धीमी होती है. 

सामाजिक व्यवहार: कौवे आमतौर पर समूहों में रहते हैं और अक्सर झुंडों में दिखाई देते हैं. इसके विपरीत, कौवे ज़्यादातर अकेले या जोड़े में रहना पसंद करते हैं. 

उड़ने का तरीका: कौवे उड़ते समय ज़्यादा तेज़ी से पंख फड़फड़ाते हैं, जबकि कौवे ज़्यादा शान से, सीधे और लंबे समय तक उड़ते हैं.

पौराणिक कथा के अनुसार, इंद्र के पुत्र जयंत ने कौए का रूप धारण कर माता सीता के पैर में चोंच मारी थी जिसके बाद भगवान राम ने उसे तिनके का बाण मारा. तब जयंत ने माफी मांगी और भगवान राम ने वरदान दिया कि उसके द्वारा खिलाया गया भोजन पितरों को प्राप्त होगा, इसी से श्राद्ध में कौवों को भोजन कराने की परंपरा शुरू हुई.

पर्यावरणीय महत्व

सफाई में योगदान:

कौवे सर्वाहारी होते हैं और मृत कीटों, सड़े हुए मांस और अन्य चीज़ों को खाकर वातावरण को स्वच्छ रखने में मदद करते हैं. 

कीट नियंत्रण:

वे कृषि कीटों और अन्य हानिकारक कीटों का शिकार करते हैं, जिससे उनकी संख्या नियंत्रित रहती है. 

ज्योतिषीय महत्व

शनि दोष मुक्ति:

नियमित रूप से कौओं को रोटी या अन्न खिलाने से शनि दोष दूर होता है. 

आर्थिक लाभ:

कौओं को भोजन कराने से आर्थिक संकट दूर होता है और कर्ज से राहत मिलती है, साथ ही सुख-शांति में वृद्धि होती है. 

अगर कौवे नहीं होते तो पर्यावरण सफाई में बाधा आती, मृत जानवरों के शव पर्यावरण को दूषित करते और फलों के बीजों के फैलाव में भी कमी आती जिससे वनों का नवीनीकरण प्रभावित होता. इसके अलावा, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं में कौवे की महत्वपूर्ण भूमिका है, विशेष रूप से पितृपक्ष के दौरान, और उनकी कमी से इन अनुष्ठानों पर भी असर पड़ता. 

 

सफाईकर्मी की भूमिका:

कौवे मृत जानवरों के मांस खाकर पर्यावरण को साफ रखने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं. उनके न होने से वातावरण में सड़े-गले शवों के कारण दुर्गंध फैलती और बीमारियाँ फैलने का खतरा बढ़ता.

बीजों का प्रसार:

कौवे फल और बीज खाते हैं और इन बीजों को फैलाते हैं, जिससे वनों के नवीनीकरण में मदद मिलती है. कौवे न होने पर बीजों के फैलाव में कमी आती, जिससे वनस्पति का विकास रुक जाता.

कीटों का नियंत्रण:

कौवे बड़ी संख्या में कीड़े, कैटरपिलर और अन्य कीट खाते हैं, जो किसानों और बागवानों के लिए हानिकारक हो सकते हैं. उनकी अनुपस्थिति में इन कीटों की संख्या बढ़ सकती थी, जिससे फसलों को नुकसान पहुँचता.

धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव

श्राद्ध कर्म:

हिंदू धर्म में कौवों को पितरों का दूत माना जाता है. पितृ पक्ष के दौरान कौवों को भोजन कराने की परंपरा है जिससे यह माना जाता है कि भोजन सीधे पितरों तक पहुँचता है. 

पितरों से जुड़ाव:

कौवों का न होना पितृपक्ष को अधूरा माना जाने का कारण है. उनकी कमी से धार्मिक अनुष्ठानों की पवित्रता और महत्व कम हो जाता है.

संक्षेप में, कौवे पर्यावरण की सफाई से लेकर बीजों के प्रसार और धार्मिक प्रथाओं तक कई महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाते हैं और उनके बिना पारिस्थितिकी तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.

chander mohan

-चंद्र मोहन

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