"जीवन का पहला आंसू: रोने का सच्चा अर्थ और परमात्मा के प्रति समर्पण"

संसार में जो भी आया है ऐसा कोई नहीं जो कभी रोया न हो। चाहे मर्यादा पुरूषोत्तम राम थे अथवा योगीराज कृष्ण थे, जिसने भी जन्म लिया उसे रोना अवश्य पड़ा, क्योंकि मनुष्य का जन्म ही रोने से आरम्भ होता है। पहले श्वास के साथ ही रोना शुरू, परन्तु रोना उसी का सार्थक है जो भगवान के आगे रोये, किन्तु उसके सामने हृदय से वहीं रो सकता है, जिसने अपनी आत्मा को निर्मल बना लिया है और आत्मा उसकी निर्मल होगी, जिसने प्रायश्चित के आंसुओं से अपने पापों को धो लिया है। दूसरे रोना उसका सार्थक है जो किसी के दुख को, किसी की पीड़ा को देखकर द्रवित हुआ हो और उसकी पीड़ा को दूर करने को उद्यत हुआ हो। अपना सर्वस्व प्रभु को अर्पित कर दो। जो तुम्हारे पास है उसी की कृपा से तुम्हारे पास आया है। तुम तो खाली हाथ आये थे और खाली हाथ ही चले जाओगे। प्रभु से कहो कि चाहे तू हंसा चाहे तू रूला, जहां मर्जी है बैठा, जो मर्जी करवा, स्वयं को पूरी तरह परमात्मा को समर्पित कर दो, जहां भी उसका नाम सुनो सिर झुका लो। भगवान हृदय के भाव जानते हैं, क्योंकि वे अन्तर्यामी हैं। पूर्ण रूप से प्रभु के दास बन जाओ। जो प्रभु का दास बन गया, उसकी उदासी खत्म, चिंताएं समाप्त।