मन के हारे हार है, मन के जीते जीत – एक जीवन दर्शन

एक बात सदियों से कही जाती रही है कि मन के हारे हार है मन के जीते जीत। तात्पर्य यह है कि यदि मन से हार गये तो आपकी हार निश्चित है। इसे हार की स्वीकारोक्ति के रूप में देखा जाता है, जबकि यह वास्तव में एक स्थिति का विशलेषण मात्र है। सकारात्मक दृष्टि से विचार करते तो हम पायेंगे कि पहले जीत का प्रयास हो और वह प्राप्त न हो पाये तभी हार स्वीकार करनी चाहिए, किन्तु एक बार की हार-हार नहीं होती। हजार बार हार जाने के बाद भी पुन: जीत का प्रयास होना चाहिए। हमें यह सोचकर अपने प्रयासों को विराम नहीं देना चाहिए कि भाग्य में ही ऐसा लिखा था, इसलिए हम हार गये। भाग्य को बीच में लाकर हम भ्रम का शिकार हो जाते हैं। माना कि हमारे पूर्व कर्मों के आधार पर बने प्रारब्ध का बहुत बड़ा हाथ है, परन्तु यह याद रखो कि पुरूषार्थी का साथ भगवान भी देता है। भगवान किसी का पारिश्रमिक अपने पर उधार नहीं रखता। वह आपके परिश्रम का फल निश्चित देगा। यह सही है कि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां सौभाग्य-दुर्भाग्य के लक्षण हैं। दुर्भाग्य जब जन्म लेता है तो परिस्थितियों में विषमता बढ़ जाती है। भाग्य आपको कुछ भी दे वह महत्वपूर्ण तो है, परन्तु सब कुछ वह नहीं है। उससे भी बड़ी बात यह हो सकती है कि भाग्य से जो मिल रहा है उसे पाने के बाद भी अपने विवेक और पुरूषार्थ के द्वारा उसे चुनौती देते हुए अपने आपको ऊंचा उठाने में संलग्न हो जाइये। हार मानकर न बैठिए। अपने पुरूषार्थ में कमी न आने दे, परिस्थितियों की गुलामी न करें।